सबसे छोटे मगर सबसे ज्यादा पर्यावरण मित्र हिल स्टेशन माथेरान के सैर

सबसे छोटे मगर सबसे ज्यादा पर्यावरण मित्र हिल स्टेशन माथेरान की  सैर

माथेरान का सफ़र टॉय ट्रेन में  

पहाड़ और घाटी 

आब्जर्वेशन  पाइंट से प्रकृती का एक नजारा 

माथेरान का रेल स्टेशन 

लार्ड्स पाइंट से एक नजारा 
दोस्तों, मैं सबसे पहली बार बॉम्बे १९७८ मैं आया था, इस शहर और इसके आस पास के इलाके ने कुछ ऐसा प्रभावित  किया कि मैं तो यहीं का हो कर रह गया. मेरे दोस्त अक्सर ज़िक्र किया करते थे कि यहाँ से सबसे करीब हिल स्टेशन माथेरान  है, सुन्दर है जरूर देख कर आइये .  मैंने  तब से हिंदुस्तान भर के हिल स्टेशन  देख लिए पर  इसका नंबर आ ही नहीं पा रहा  था .

पिछले दिनों मेरा बेटा लन्दन से आया हुआ था, इत्तफाक से उसकी पैदाईश पहाड़ की है,  पहाड़ भी धुर उत्तर में सीमान्त इलाके में, जहाँ बॉम्बे से पहुँचने में कम से कम पांच दिन लगें और कमर की हड्डियाँ कीर्तन करने लगें . सो हमने सोचा कि उसे   बॉम्बे के करीब का पहाड़ ही दिखा दिया जाय. माथेरान सचमुच बहुत करीब है लोखंडवाला से अँधेरी स्टेशन महज २० मिनट, अँधेरी से दादर २५ मिनट, दादर से नेरल कोई १.५ घंटे और फिर वहां से छुक छुक खिलौना  रेल में २ घंटे ,  यानि कुल मिला कर  ५  घंटे में आराम से पहुँच सकते हैं.

अगर देखा जाय तो उत्तर हिमालय के हिल स्टेशनों के मुकाबले माथेरान महज टीला ही है, पर उत्तर भारत के तमाम हिल स्टेशन सीजन में ऑटो - वाहनों के प्रदूषण का बलात्कार झेलते झेलते थक जाते हैं  वहीं  माथेरान  पर्यावरण  संरक्षित क्षेत्र होने के कारण  होने के कारण ऑटो वाहनों से पूरी तरह आज़ाद है, यह आत यहाँ की हवा और पानी में महसूस की जा सकती है.  यहाँ ऑटो वाहन के नाम पर एक चिकित्सीय इमरजेंसी वैन है, प्रदूषण रहित क्षेत्र होने के कारण यहाँ के निवासी आसानी से बीमार नहीं पड़ते हैं, इसलिए यह वैन भी शायद ही कभी चलती हो.

माथेरान के दो ही आकर्षण हैं, पहला यहाँ की प्रदूषण मुक्त हवा जो बॉम्बे वासियों के लिए किसी अमृत से कम नहीं है, यदि फेफड़ों में विशुद्ध प्राण वायु भरनी हो तो महीने दो महीने में यहाँ जरूर आना चाहिए. दूसरा आकर्षण यहाँ की नेरो गेज खिलौना ट्रेन  है जिसे माथेरान लाईट रेलवे (एम एल आर) कहते हैं. यह ट्रेन २१ कि मी की दूरी दो घंटे में तय करती है और ८०० मीटर की ऊंचाई छू  लेती है , इस बीच में यह घुमाव दार रास्तों ,  रम्य जंगलों, घाटियों के बीच से गुजरती है गति ऐसी कि कहीं भी उतर कर चढ़ लो, बीच में दो स्टेशन पड़ते हैं जुम्मा पट्टी और वाटर पाइप, आखिर में दस्तूरी नका आता है जहाँ से माथेरान केवल तीन कि मी रह जाता है, दतुरी नाके के बाद औटो वाहन जाने की अनुमति नहीं है. यहाँ प्राइवेट वाहनों के लिए म्य्नुस्पिल बोर्ड ने पर्याप्त व्यवस्था की है , यदि आप टॉय ट्रेन से जा रहे हैं तो आप वी आई पी हैं क्योंकि  ट्रेन शहर के अन्दर तक जाती है और जो लोग ऑटो वाहन से आये हैं उन्हें दस्तूरी नाके से शहर तक का सफ़र घोड़े, हाथ गाडी  या फिर रेल ट्रेक के किनारे किनारे तय करना होता है.


  माथेरान को सबसे पहले बाहरी दुनिया से परिचय कराने का श्रेय ठाणे   जिले के कलेक्टर हग पन्तेज़ मालेट को जाता है जो १८५० में यहाँ पहुंचे और यहाँ के प्राकृतिक सोंदर्य से अभिभूत हो गए. किसी एक व्यक्ति का सपना कैसे हकीकत में बदलता है यह कोई सर अदम पीरभाई से सीखे. सन १९०२ में पीरभाई ने सपना देखा कि माथेरान रेल जायेगी, निर्माण कार्य अपने बलबूते पर शुरू किया १९०७ में रेल माथेरान पहुँच गयी, आज भी पहाड़ पर  रेल की पटरी बिछाना आसान नहीं है, आज से १०० साल पहले तो यह काम कितना दुश्वार रहा होगा यह महज कल्पना ही की जा सकती है . बॉम्बे के शेरिफ रहे पीरभाई ने अब से सौ साल पहले इस परियोजना में अपनी जेब से १४ लाख रुपये लगाये थे ! मजे की बात यह कि इस विलक्षण शख्सियत  का कोई स्मारक नेरल या माथेरान में नहीं है.


माथेरान एक और विशेषता  यहाँ के आब्जर्वेशन  पाइंट हैं जहाँ खड़े होकर प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारा जा सकता है .
कुल मिला कर ऐसे कोई २० - २१ पाइंट हैं , इनमें भी लार्ड्स, इको, लुइसा, हनीमून, सनराइज, सनसेट   खास हैं.
अगर आपके पास पर्याप्त समय हो तो आप और प्रकृती के बीच का फासला दूर हो सकता है.  मुख्य बाज़ार से महज १.५ कि मी पर शर्लेट झील  भी है सीजन में लबालब भर कर यह बहुत सुन्दर दिखती है , यहाँ  से शहर को पानी सप्लाई किया जाता है.


इस हिल स्टेशन का आकार  बहुत छोटा है, मुश्किल से आधा कि मी में पूरा शहर सिमटा हुआ है, यहाँ लेदर का अच्छा
काम होता है, जूते, चप्पल, बैग सस्ते दाम में मिल जाते हैं, खाना बॉम्बे की तुलना में सस्ता लेकिन अच्छा है. केतकर, रामकृष्ण, कुमार, गार्डन व्यू  अच्छे रेस्टोरेंट हैं. बस एक बात दिल को खटकती है, पर्यावरण के प्रति जागरूकता अच्छी है लेकिन इसके नाम पर इस छोटे से क्षेत्र में टूटी फूटी इमारतों को ऐसे  ही छोड़ देना जुगुत्सा पैदा करता है. आखिर शहर का एस्थेटिक भी कोई चीज है. नगरपालिका शहर में आने वाले हर यात्री से २५/- लेती है लेकिन इसके बदले बुनियादी सुबिधा  नदारद हैं , यदि किसी महिला को वाश रूम की जरुरत पड़े तो सिवाय असुविधा और  शर्मिंदगी के कुछ हाथ नहीं आएगा.


यहाँ के होटल वाले , घोड़े वाले, हाथ गाडी वाले यात्री की हजामत बनाने में लगे रहते हैं, किसी भी चीज का कोई फिक्स रेट नहीं है, होटल के एक ही रूम का भाडा १५०० रूपये से ३५०० तक लिया जा सकता है. घोड़े की सवारी १५० रूपये प्रति  घंटे से ३५० रूपये तक हो सकती है.   वीकेंड में तो रेट की जबरदस्त मारामारी चलती है, पर्यटन विभाग या फिर सरकार इस लूट के खेल को मूक दर्शक के रूप में देखती रहती है. सरकारी पर्यटन विभाग को ऐसे स्थान पर सस्ती और अच्छी आवासीय व्यवस्था करने से भला  कौन रोकता   है, इसका रोल ब्रोशर छापने और बांटने तक सीमित नहीं रहना चाहिए.            

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