मेरे मित्र अतुल अग्रवाल और उनका साहित्य प्रेम
अभी अभी मैं महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी और हल्का- ऐ- शेर- ओ -अदब की जानिब से आयोजित आल इंडिया मुशायरा से बापस लौटा हूँ. इस की खास बात यह थी कि सदारत के लिए मेरे बचपन के दोस्त अतुल अग्रवाल को बुलाया गया था.
उस से भी ख़ास यह कि इस मौके पर कई शायरों को सम्मानित किया गया और अतुल को दुष्यंत कुमार की याद में शुरू किये गए सम्मान से महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री नसीम खान द्वारा नवाज़ा गया.
अतुल मेरे बचपन के दोस्त हैं. मुझे याद है कि बचपन में भी उन्हें अच्छी शायरी पढ़ने का शौक हुआ करता था, दुष्यंत से ले कर कुंवर बेचैन तक की शायरी उन्हें याद रहती थी. हम चंदौसी क्लुब की सीड़ीयों पर शाम को बैठते थे सुनना और सुनाना दोनों में कब शाम गुजर जाती पता ही नहीं चलता था. चंदौसी बहुत पीछे छूट गया. लेकिन जिन्दगी की जिद्दोजहद के वावजूद मेरा जर्नलिज्म और लेखन से जुड़ाव बना रहा.
धीरे धीरे रस्ते बदले, अतुल अपना करिअर बनाने दिल्ली और फिर वहां से बम्बई निकले, करिअर की आपाधापी में मुझे लगता था कि अतुल के अन्दर बैठा संवेदनशील कवि ह्रदय दम तोड़ देगा, समय गुजरता गया हम लोगों की मुख़तसर सी मुलाकातें भी होती रहीं. प्रोफेशनल करिअर के बाद उनका बिल्डर बनना, बिल्डरों की जमात में भी बहुत आगे पहुंचना , यह सब मुझे पता था. पर मुझे दो साल पहले ही पता चला कि उनके अन्दर बैठा कवि अब बिल्डर पर हावी हो चुका है.
इन दिनों वे दोहे , ग़ज़ल, नज़्म, गीत जम कर लिख रहे हैं , उनके कई कलेक्शन रिकॉर्ड हो चुके हैं, किताब भी शाया हो चुकी हैं . देश भर के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उन्हें बाकायदा बुलाया जाता है.
उनकी शायरी का मयार देखने के लिए एक नज़्म मुलाहिज़ा कीजिये :
"शहर को छोड़ कर जिसदिन मै अपने गाँव में आया
तो जैसे धुप को छोड़ा तो ठंडी छाओं में आया
वहां जो मैंने देखा वो नया सा एक मंज़र था
गगन चुंबी ईमारत थी जहाँ पहले वो खंडहर था
मुझे मेरा पुराना घर कही भी न नज़र आया
उतारा मैंने चश्मे को तो सब बदला हुआ पाया
महकता था जो खुशबु से कभी कच्चा था वो रास्ता
गया स्कूल तो देखा न तख्ती थी न वो बस्ता
लगते थे कभी तख्ती पे हिन्दुस्तान की मिटटी
हमी तो अब पडी होगी मुल्तान की मिटटी
कहाँ वो बांस की ताटल कलम है रोशनाई है
यहाँ पर रहने वालों की हंसी किसने चुराई है
कभी स्कूल में बेठे बिछा कर टाट का टप्पर
हुई बारिश अचानक तो वो बस्ता रख लिया सर पर
अभी तक मैं नहीं भूला हूँ वो स्कूल से आना
वो ममता से भरा चुम्बन नरम और रेशमी खाना
न मंदिर हैं न मस्जिद हैं यहाँ अब सिर्फ दंगे हैं
धरम की डोर से उड़ते ये इन्सान तो पतंगे हैं"
अतुल भाई का यह सफ़र बताता है कि अगर इंसान में पैशन है तो वह कुछ भी कर सकता है !

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