अलविदा गणपति





अलविदा गणपति
गणेश चतुर्थी मुंबई में न सिर्फ भक्ति भावना का ज्वार लाती है वरन सामुदायिक रहन सहन का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है. गणपति वप्पा मोरया के समवेत स्वरों से सड़क, गली गुंजित हो जाती हैं. चाहे गरीब हो या फिर अमीर हर एक के घर में मिट्टी के गणपति स्थापित किये जाते हैं , जगह जगह पंडाल में सार्वजानिक मूर्ति भी रहती हैं जहाँ भक्त जन बड़ी संख्या में जुटते हैं , धार्मिक भावनाओं का उभार चरम सीमा पर पहुँच जाता है. सुबह शाम भजन कीर्तन भक्तों का उत्साह और बढ़ा देते हैं. इस आलेख का उद्देश्य
इस दौरान की जाने वाली चंदा उगाही या फिर त्यौहार के राजनीतिकरण के बारे में चर्चा करना नहीं है वरन
मूर्ति विसर्जन से जुड़ी अलौकिकता की अनुभूति है.

इस बरस मैंने विसर्जन के लिए लोखंडवाला से वर्सोवा बीच का सफर तय किया. दो किलोमीटर की यह दूरी तय करते करते चार घंटे लग गए . सड़क पर विसर्जन के लिए जाते सैकड़ों समूह लेकिन कहीं कोई अव्यस्था नहीं , भजनों और 'गनपत बाप्पा मोरिया पुरचा वर्षी लौकरिया' के समवेत स्वरों, ढोल नगाड़ों के कोलाहल के बीच आनंद ही आनंद. जो कहता है कि इस महानगर में केवल तनाव ही तनाव है वो जरा विसर्जन के लिए जाते हुए लोगों को देख ले.

बीच पर पहुचते पहुचते हमें शाम के तकरीबन आठ बज चके थे. वहां हमें आस पास की मच्छीमार बस्ती में रहने वाले युवकों ने हमें घेर लिया. वे हमारे गणपति को विसर्जन के लिए गहरे पानी में ले जाने के लिए आग्रह कर रहे थे, ये युवक पूरे साल का जेबखर्च विसर्जन के दोरान निकल लेते हैं. बस रेतपर रख कर गणपति मूर्ति की अंतिम बार आरती फिर जल की ओर प्रस्थान, नम ऑंखें, मन में भावना कि अगले वर्ष गणपति जरा जल्दी आ जाएँ !

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