सवाल भाषा का : नए हिंदी सिनेमा में
इन दिनों हिंदी फिल्मों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पर खासी बहस चल पड़ी है कोई कहता है कि इनमें आधी हिंदी तो आधी अंग्रेजी है कोई कहता है कि फ़िल्मी डायलाग में चुनिन्दा गलिओं की भरमार हिंदी भाषा को कहाँ ले जाएगी .
अमेरिकी मैगज़ीन newyorker को रोल माडल मान कर निकाली पत्रिका caravan की ओर से मुंबई के ओलिव बार & किचन में आयोजित बहस 'The question of language in the new Hindi Cinema' में कल हिंदी फिल्मों से जुड़े विज्ञापन जगत के जानेमाने नाम प्रसून जोशी, रंग दे बसंती ओर दिल्ली ६ के निदेशक राकेश मेहरा, निदेशक अभिनेता सौरभ शुकला( सत्या के कल्लू मामा के नाम से वेहतर चर्चित), निदेशक नवदीप, गीत और स्क्रीन लेखक निरंजन आयंगर ने हिस्सा लिया. श्रोताओं में विज्ञापन गुरु प्रह्लाद कक्कड़ , जानी मानी कलाकार और निदेशक नंदिता दास भी थी.
बात चीत का लब्बो लुआब यह रहा कि जब हर समय टीवी पर मुफ्त में मनोरंजन उपलब्ध है तो फिर दर्शक को सिनेमा हाल तक लाने के लिए कुछ ऐसा करना होगा जो टीवी पर देखने को नहीं मिल पा रहा है, विज्ञापन की भाषा में सीधे सीधे कहें तो ये सारा हिंगलिश होते जा रहे या फिर गाली की भरमार वाले डायलाग के लिए मार्केट की मजबूरियां जिम्मेदार हैं. इसे राकेश और प्रसून ने खाभी घुमा फिरा कर तो कभी चासनी में चढ़ा कर समझाने की कोशिश की. सुनने वालों को बात इस लिए हजम नहीं हो रही थी कि हाल ही में 'बैंड बाजा बारात' और 'फँस गए रे ओबामा' जैसी फिल्मे आयी हैं जिनमे ऐसा कुछ भी नहीं था पर फिर भी ये फिल्मे खूब चलीं . माडरेटर तृषा गुप्ता थीं जिन्होंने रिसर्च तो की थी लेकिन हिंदी फिल्मों को कायदे से जिया नहीं था इस लिए मार्केटिंग तिलिस्म से जुड़े प्रसून पर कोई सार्थक हल्ला नहीं कर पायीं लेकिन दिल्ली प्रेस के प्रबंध निदेशक परेश नाथ ने बड़े प्यार से चुटकी ले कर विज्ञापन, मार्केटिंग की मज़बूरी दिखा कर और अंग्रेजी के जरिये हिंदी फिल्मों को लिखने वाले, चुनिन्दा गालिओं और हिंगलिश से डायलाग सजाने वालों की खिचाई की. परेश ने यह भी बताया कि हिंदी फिल्मों में भाषा को विगाड़ने की इन सारी कोशिशों के वावजूद भी प्रिंट की भाषा जस की तस है. .
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