एक ग़ज़ल आतंकवादियों के नाम
जब भी जी चाहे कोई वारदात करते हो,
आ के दबे पांव पीछे से वार करते हो.
किस धरम दीन की तुम बात करते हो,
तुम तो कायर हो निह्थों का लहू पीते हो.
दया नहीं है बाक़ी तुम्हारे अंतर में ,
किस तरह मानव का रूप जीते हो.
कैसी वफ़ा कहाँ की ईमानदारी ,
मियां कौन सी सदी में रहते हो.
आ के दबे पांव पीछे से वार करते हो.
किस धरम दीन की तुम बात करते हो,
तुम तो कायर हो निह्थों का लहू पीते हो.
दया नहीं है बाक़ी तुम्हारे अंतर में ,
किस तरह मानव का रूप जीते हो.
कैसी वफ़ा कहाँ की ईमानदारी ,
मियां कौन सी सदी में रहते हो.
Comments
Post a Comment