kalidas and vikrmaditya's Ujjain
हाल ही में मुझे कालिदास और विक्रमादित्य की अवंतिका नगरी में मुझे जाने का सुयोग्य प्राप्त हुआ। हजारों साल से यह नगरी सभ्यता, संस्कृति और धर्म की यात्रा की गवाह रही है। कर्क रेखा यहीं से गुजरती है इस लिए इसे समय का वैसा ही केंद्र माना जाता था जैसा इन दिनों ग्रीनविच को मानते हैं। वर्तमान में इसे उज्जैन के नाम से जाना जाता है नगर के अधिष्ठात्री देव देवों के देव महादेव हैं, उनका रूप बड़ा विचित्र है। यहाँ उन्हें काल का स्वामी अर्थात महाकालेश्वर कहा जाता है, जरा सी दूरी पर उनके सेनापति कालभैरव का भी मंदिर है, इन महाशय को अर्चना के रूप में शराब चढ़ाई जाती है कुछ हिस्सा तो पुजारी मूर्ति को पिलाते हैं बाकी प्रसाद रूप में भक्त को दे दी जाती है । भय्या यह जो काल भैरव हैं स्काच से ले कर ठर्रा सभी कुछ चट कर जाते हैं नगर से कुछ ही दूरी पर कृष्ण और सुदामा के गुरु सांदीपनि ऋषि का आश्रम भी है जहाँ इन दोनों ने शिक्षा ग्रहण की थी। उज्जयिनी भारत की सात पुराण प्रसिध्द नगरियों में प्रमुख स्थान रखती है। उज्जयिनी में प्रति बारह वर्षों में सिंहस्थ महापर्व का आयोजन होता है। इस अवसर पर देश-विदेश से करोड़ों श्रध्दालु भक्तजन, साधु-संत, महात्मा महामंडलेश्वर एवं अखाड़े प्रमुख उज्जयिनी में कल्पवास कर मोक्ष प्राप्ति की मंगल कामना करते हैं। अतीत में उज्जैन को अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा,अमरावती आदि अनेक नामों से पहचाना जाता था। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।
क्षिप्रा नदी यहीं से बहती है पर इसका तो श्रध्दालुओं ने हाल बेहाल किया है फूल से लेकर तमाम किस्म की गंदगी पवित्र क्षिप्रा में ही बहा देते हैं, इस लिए पीना तो दूर नहाने तक के लायक इसका जल नहीं रहा है। क्षिप्रा नदी त्रिवेणी से उज्जैन नगरी में प्रवेश कर गऊ घाट, राम घाट, भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुँचती है। मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के आसपास का प्राकृतिक स्वरूप आज भी मन मोह लेता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुड़कर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ जाती है।
सिंहस्थ पर्व पर इसका क्या हाल होतो होगा यह तो भगवान् जाने, पर नगर के रहने वालों से लेकर धर्म के ध्वजा वाहकों तक किसी को इस से लगता है कोई लेना देना नहीं है। कम से कम मंदिर ट्रस्ट या फिर नगर पालिका किसी को तो इस पुण्य कार्य के लिए आगे आना चाहिए।
उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई। सन् 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट अवंति जनपद के शासक थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था। राजनैतिक इतिहास उज्जैन का काफी लम्बा रहा है। उज्जैन के गढ़ क्षेत्र से हुयी खुदाई में लोहयुगीन सामग्री प्रचुर मात्र में प्राप्त हुई है। पुराणों व महाभारत में उज्जयिनी का उल्लेख उल्लेख आता है। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की और से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। ईसा की छठी सदी में उज्जैन में एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंड प्रद्योत था। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास प्रसिद्द है। प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
महाकवि कालिदास उज्जयिनी के इतिहास प्रसिध्द सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। इनको उज्जयिनी अत्यंत प्रिय थी। इसीलिये कालिदास ने उज्जयिनी का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है। सम्राट विक्रमादित्य ही महाकवि कालिदास के वास्तविक आश्रयदाता के रूप में प्रख्यात है। महाकवि कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। उज्जयिनी में ही उन्होंने अत्यधिक प्रवास-काल व्यतीत किया और यहींपर कालिदास ने उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को देखा। वैभवशाली अट्टालिकाओं, उदयन, वासवदत्ता की प्रणय गाथा, भगवान महाकाल संध्याकालीन आरती तथा नृत्य करती गौरीगनाओं के सात ही क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व आदि सेभली भांति परिचित होने का अवसर भी प्राप्त किया हुआ जान पडता है।
'मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पत्रडा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। कालिदास के 'मेघदूत' में उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलप्त हो गया हो परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक-पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के सात ही ज्योतिक्ष क्षेत्र का महत्व भी प्रसिध्दहै। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है। उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है।
उज्जैन के महाकालेश्वर की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोक मानस में महाकाल की परम्परा अनादि है। उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु था और महाकाल उज्जैन के अधिपति आदिदेव माने जाते हैं।
सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका सन १८८० ई। तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया। सन १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का संस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया।
इतिहास के प्रत्येक युग में-शुंग,कुशाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार तथा अपेक्षाकृत आधुनिक मराठा काल में इस मंदिर का निरंतर जीर्णोध्दार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के काल में मालवा के सूबेदार रामचंद्र बाबा शेणवी द्वारा कराया गया था। वर्तमान में भी जीर्णोध्दार एवं सुविधा विस्तार का कार्य होता रहा है। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिण मुखी है। तांत्रिक परम्परा में प्रसिध्द दक्षिण मुखी पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकालेश्वर कोही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति कीतरह इस तरह मंदिर में भी ओंकारेश्वर शिव की प्रतिष्ठा है।तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी को होते है। विक्रमादित्य और भोज की महाकाल पूजा के लिए शासकीय सनदें महाकाल मंदिर को प्राप्त होती रही है। वर्तमान में यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित है।
उज्जैन के अन्य दर्शनीय स्थल
बड़े गणेश मंदिर
श्री महाकालेश्वर मंदिर के निकट हरसिध्दि मार्ग पर बडे गणेश की भव्य और कलापूर्ण मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति का निर्माण पद् मविभूषण पं। सूर्यनारायण व्यास के पिता विख्यात विद्वान स्व। पं। नारायण जी व्यास ने किया था। मंदिर परिसर में सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा के साथ-साथ नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजित हैं।
मंगलनाथ मंदिर
पुराणों के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल की जननी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए यहाँ पूजा-पाठ करवाने आते हैं। यूँ तो देश में मंगल भगवान के कई मंदिर हैं, लेकिन उज्जैन इनका जन्मस्थान होने के कारण यहाँ की पूजा को खास महत्व दिया जाता है।कहा जाता है कि यह मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल की नगरी कहा जाता है, इसलिए यहाँ मंगलनाथ भगवान की शिवरूपी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। हर मंगलवार के दिन इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है।
हरसिध्दि
उज्जैन नगर के प्राचीन और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिध्दि देवी का मंदिर प्रमुख है। चिन्तामण गणेश मंदिर से थोडी दूर और रूद्रसागर तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हरसिध्दि देवी की पूजा की जाती थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य रही। शिवपुराण के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहाँ गिरी थी। इसी वजह से ये देश के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है।
क्षिप्रा घाट
उज्जैन नगर के धार्मिक स्वरूप में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दाहिने किनारे, जहाँ नगर स्थित है, पर बने ये घाट स्थानार्थियों के लिये सीढीबध्द हैं। घाटों पर विभिन्न देवी-देवताओं के नये-पुराने मंदिर भी है। क्षिप्रा के इन घाटों का गौरव सिंहस्थ के दौरान देखते ही बनता है, जब लाखों-करोडों श्रध्दालु यहाँ स्नान करते हैं। यहाँ प्रतिदिन शाम को क्षिप्रा आरती से पूरा वातावरण एक अलग आनंद की अनुभूति देता है, लेकिन क्षिप्रा का बदबूदार जल सारा आनंद तिरोहित कर देता है।
गोपाल मंदिर
गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बडा मंदिर है। यह मंदिर नगर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने सन् 1833 में बनवाया था। मंदिर में कृष्ण (गोपाल) प्रतिमा है। मंदिर के चांदी के द्वार यहाँ का एक अन्य आकर्षण हैं। इस मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर सोमनाथ मंदिर का हीरे जवाहरतों से जड़ा दरवाजा लगा है। करोड़ों अरबों रुपये की लागत के इस दरवाजे से लोगों ने कीमती हीरे पन्ने माणिक और मोती निकालकर इसे बदरंग कर दिया। मंदिर में स्थापित काले पत्थर की कृष्ण (गोपालजी) की प्रतिमा की दाढ़ी में एक हीरा लगा है जो दूर से ही चमकता है, आज इस हीरे की कीमत करोड़ों रुपये में है।
गढकालिका देवी
गढकालिका देवी का यह मंदिर आज के उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी क्षेत्र में है। कालयजी कवि कालिदास गढकालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का सम्राट हर्षवर्धन द्वारा जीर्णोध्दार कराने का उल्लैख मिलता है।गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। सिंधिया राजवंश में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया।
भर्तृहरि गुफा
भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा। कहा जाता है किविक्रमादित्य के भाई राजा भृतहरि को इसी गुफा में वैराग्य मिला था। भृतहरि की तपस्या से परेशान होकर इंद्र ने भृतहरि पर गदासे हमला किया था तो उन्होंने अपने हाथों से एक विशाल चट्टान को रोक लिया था इस गुफा में अंदर एक चट्टान पर इंद्र की गदा के हमले के और भृतहरि के हाथों के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। मान्यता है कि इस गुफा से चारों धाम तीर्थ यात्रा का गोपनीय मार्ग भी बना हुआ है।
काल भैरव
काल भैरव मंदिर आज के उज्जैन नगर में स्थित प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह स्थल शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से संबंधित है। मंदिर के अंदर काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का प्रमुख स्थान है। काल भैरव को शराब का भोग लगाया जाताहै।
उज्जैन में प्रति बारह वर्ष में होने वाला सिंहस्थ मेला
सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं।
देश भर में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयास, नासिक, हरिध्दार और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों के उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। सिंहस्थ आयोजन की एक प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित है। अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य,चन्द्र, गुरू की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहाँ कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य,गुरू और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है।
इसके अलावा उज्जयिनी में चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दिमां, गत्रढकालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, बोहरो का रोजा, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, पीरमछन्दर नाथ की समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश मंदिर जैसे कई प्रमुख दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थल हैं।
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क्षिप्रा नदी यहीं से बहती है पर इसका तो श्रध्दालुओं ने हाल बेहाल किया है फूल से लेकर तमाम किस्म की गंदगी पवित्र क्षिप्रा में ही बहा देते हैं, इस लिए पीना तो दूर नहाने तक के लायक इसका जल नहीं रहा है। क्षिप्रा नदी त्रिवेणी से उज्जैन नगरी में प्रवेश कर गऊ घाट, राम घाट, भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुँचती है। मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के आसपास का प्राकृतिक स्वरूप आज भी मन मोह लेता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुड़कर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ जाती है।
सिंहस्थ पर्व पर इसका क्या हाल होतो होगा यह तो भगवान् जाने, पर नगर के रहने वालों से लेकर धर्म के ध्वजा वाहकों तक किसी को इस से लगता है कोई लेना देना नहीं है। कम से कम मंदिर ट्रस्ट या फिर नगर पालिका किसी को तो इस पुण्य कार्य के लिए आगे आना चाहिए।
उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई। सन् 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट अवंति जनपद के शासक थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था। राजनैतिक इतिहास उज्जैन का काफी लम्बा रहा है। उज्जैन के गढ़ क्षेत्र से हुयी खुदाई में लोहयुगीन सामग्री प्रचुर मात्र में प्राप्त हुई है। पुराणों व महाभारत में उज्जयिनी का उल्लेख उल्लेख आता है। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की और से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। ईसा की छठी सदी में उज्जैन में एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंड प्रद्योत था। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास प्रसिद्द है। प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
महाकवि कालिदास उज्जयिनी के इतिहास प्रसिध्द सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। इनको उज्जयिनी अत्यंत प्रिय थी। इसीलिये कालिदास ने उज्जयिनी का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है। सम्राट विक्रमादित्य ही महाकवि कालिदास के वास्तविक आश्रयदाता के रूप में प्रख्यात है। महाकवि कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। उज्जयिनी में ही उन्होंने अत्यधिक प्रवास-काल व्यतीत किया और यहींपर कालिदास ने उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को देखा। वैभवशाली अट्टालिकाओं, उदयन, वासवदत्ता की प्रणय गाथा, भगवान महाकाल संध्याकालीन आरती तथा नृत्य करती गौरीगनाओं के सात ही क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व आदि सेभली भांति परिचित होने का अवसर भी प्राप्त किया हुआ जान पडता है।
'मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पत्रडा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। कालिदास के 'मेघदूत' में उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलप्त हो गया हो परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक-पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के सात ही ज्योतिक्ष क्षेत्र का महत्व भी प्रसिध्दहै। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है। उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है।
उज्जैन के महाकालेश्वर की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोक मानस में महाकाल की परम्परा अनादि है। उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु था और महाकाल उज्जैन के अधिपति आदिदेव माने जाते हैं।
सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका सन १८८० ई। तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोध्दार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया। सन १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का संस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया।
इतिहास के प्रत्येक युग में-शुंग,कुशाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार तथा अपेक्षाकृत आधुनिक मराठा काल में इस मंदिर का निरंतर जीर्णोध्दार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के काल में मालवा के सूबेदार रामचंद्र बाबा शेणवी द्वारा कराया गया था। वर्तमान में भी जीर्णोध्दार एवं सुविधा विस्तार का कार्य होता रहा है। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिण मुखी है। तांत्रिक परम्परा में प्रसिध्द दक्षिण मुखी पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकालेश्वर कोही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति कीतरह इस तरह मंदिर में भी ओंकारेश्वर शिव की प्रतिष्ठा है।तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी को होते है। विक्रमादित्य और भोज की महाकाल पूजा के लिए शासकीय सनदें महाकाल मंदिर को प्राप्त होती रही है। वर्तमान में यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित है।
उज्जैन के अन्य दर्शनीय स्थल
बड़े गणेश मंदिर
श्री महाकालेश्वर मंदिर के निकट हरसिध्दि मार्ग पर बडे गणेश की भव्य और कलापूर्ण मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति का निर्माण पद् मविभूषण पं। सूर्यनारायण व्यास के पिता विख्यात विद्वान स्व। पं। नारायण जी व्यास ने किया था। मंदिर परिसर में सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा के साथ-साथ नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजित हैं।
मंगलनाथ मंदिर
पुराणों के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल की जननी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए यहाँ पूजा-पाठ करवाने आते हैं। यूँ तो देश में मंगल भगवान के कई मंदिर हैं, लेकिन उज्जैन इनका जन्मस्थान होने के कारण यहाँ की पूजा को खास महत्व दिया जाता है।कहा जाता है कि यह मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल की नगरी कहा जाता है, इसलिए यहाँ मंगलनाथ भगवान की शिवरूपी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। हर मंगलवार के दिन इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है।
हरसिध्दि
उज्जैन नगर के प्राचीन और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिध्दि देवी का मंदिर प्रमुख है। चिन्तामण गणेश मंदिर से थोडी दूर और रूद्रसागर तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हरसिध्दि देवी की पूजा की जाती थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य रही। शिवपुराण के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहाँ गिरी थी। इसी वजह से ये देश के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है।
क्षिप्रा घाट
उज्जैन नगर के धार्मिक स्वरूप में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दाहिने किनारे, जहाँ नगर स्थित है, पर बने ये घाट स्थानार्थियों के लिये सीढीबध्द हैं। घाटों पर विभिन्न देवी-देवताओं के नये-पुराने मंदिर भी है। क्षिप्रा के इन घाटों का गौरव सिंहस्थ के दौरान देखते ही बनता है, जब लाखों-करोडों श्रध्दालु यहाँ स्नान करते हैं। यहाँ प्रतिदिन शाम को क्षिप्रा आरती से पूरा वातावरण एक अलग आनंद की अनुभूति देता है, लेकिन क्षिप्रा का बदबूदार जल सारा आनंद तिरोहित कर देता है।
गोपाल मंदिर
गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बडा मंदिर है। यह मंदिर नगर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने सन् 1833 में बनवाया था। मंदिर में कृष्ण (गोपाल) प्रतिमा है। मंदिर के चांदी के द्वार यहाँ का एक अन्य आकर्षण हैं। इस मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर सोमनाथ मंदिर का हीरे जवाहरतों से जड़ा दरवाजा लगा है। करोड़ों अरबों रुपये की लागत के इस दरवाजे से लोगों ने कीमती हीरे पन्ने माणिक और मोती निकालकर इसे बदरंग कर दिया। मंदिर में स्थापित काले पत्थर की कृष्ण (गोपालजी) की प्रतिमा की दाढ़ी में एक हीरा लगा है जो दूर से ही चमकता है, आज इस हीरे की कीमत करोड़ों रुपये में है।
गढकालिका देवी
गढकालिका देवी का यह मंदिर आज के उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी क्षेत्र में है। कालयजी कवि कालिदास गढकालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का सम्राट हर्षवर्धन द्वारा जीर्णोध्दार कराने का उल्लैख मिलता है।गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। सिंधिया राजवंश में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया।
भर्तृहरि गुफा
भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा। कहा जाता है किविक्रमादित्य के भाई राजा भृतहरि को इसी गुफा में वैराग्य मिला था। भृतहरि की तपस्या से परेशान होकर इंद्र ने भृतहरि पर गदासे हमला किया था तो उन्होंने अपने हाथों से एक विशाल चट्टान को रोक लिया था इस गुफा में अंदर एक चट्टान पर इंद्र की गदा के हमले के और भृतहरि के हाथों के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। मान्यता है कि इस गुफा से चारों धाम तीर्थ यात्रा का गोपनीय मार्ग भी बना हुआ है।
काल भैरव
काल भैरव मंदिर आज के उज्जैन नगर में स्थित प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह स्थल शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से संबंधित है। मंदिर के अंदर काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का प्रमुख स्थान है। काल भैरव को शराब का भोग लगाया जाताहै।
उज्जैन में प्रति बारह वर्ष में होने वाला सिंहस्थ मेला
सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियाँ चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं।
देश भर में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयास, नासिक, हरिध्दार और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों के उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। सिंहस्थ आयोजन की एक प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित है। अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य,चन्द्र, गुरू की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहाँ कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य,गुरू और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है।
इसके अलावा उज्जयिनी में चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दिमां, गत्रढकालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, बोहरो का रोजा, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, पीरमछन्दर नाथ की समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश मंदिर जैसे कई प्रमुख दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थल हैं।
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