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डर और आंतक का चेहरा सामने हो तो उससे निबटना आसान होता है लेकिन जब उसका वजूद भी न हो और विध्वंस भी तय हो तो कहा नहीं जा सकता कि कोई बचेगा या सब कुछ तबाह हो जाएगा । पर इस डर और आंतक के पीछे यदि शांति के लिए किसी मकसद की तलाश में कोई ऐसा आदमी लगा हो जिसका कानून और आंतक दोनों से कोई लेना देना नहीं हो तो ? निर्देशक नीरज पांडे की केवल चार घंटो को आधार मानकर बनायी गयी फिल्म ऐ वेडनस डे मुबंई शहर के एक ऐसे ही डर और भयग्रस्त दिन के कुछ घंटो की कहानी के बीच समाज के नए चेहरों को दिखाने वाली एक अदभुत फिल्म भी बन जाती है ।

फिल्म में हांलाकि कहानी का आधार मुंबई है पर यह किसी भी शहर की कहानी हो सकती है जहां एक दिन पुलिस कमिश्नर प्रकाश राठौड का एक अंजाने आदमी (नसीर) का फोन आता है और वह चार आंतकियो को छोडने की शर्त पर शहर में अपने लगाए बमों को बताने का सौदा करता है । पुलिस कमिश्नर इसे एक बोगस कॉल मानकर छोड देता लेकिन जब उसके पुलिस कार्यालय के सामने एक बम का खुलासा होता है तो वह सकते में आ जाता है । समस्या यह है कि फोन करने वाला तो नयी तकनीक से लैस है पर उनके पास उसे स्कैन करने के लिए कोई रास्ता नहीं । इस मिशन को कामयाब करने के लिए कमिश्नर एक हैकर (गौरव कपूर) और अपने दो अफसरों आरिफ (जिम्मी) और जय (बशीर) को लगाता है लेकिन जब कॉल करने वाले आदमी के बारे में उसके पास वास्तविक जानकारी आती है तो वह चौंक जाता है । वह कोई आंतकी नहीं है बलिक एक ऐसा आम आदमी है जो बरसों से जेल में कैद ऐसे आंतकियों को छोडने का सौदा कर रहा है जिनके बारे में कानून और सरकार कोई फैसला नहीं ले पायी है । इसके लिए वह एक चैनल की रिपोटर नैना (दीपल शॉ) का इस्तेमाल भी कर रहा है क्योंकि वह पहले ही उसे ऐसा फोन कर चुका है । बस इसी अंजाने आदमी को तलाशने और आंतक की छााया के बीच सुकून देने की कहानी है ए वेडनेस डे ।

फिल्म में कोई गीत नहीं है ।

देखा जाए तो इसे किसी एक आदमी की फिल्म नहीं कहा जा सकता । इसकी वजह है कि इसमें नसीर और अनुपम खेर दोनों अपने अपने चरित्रों में जिस नये विस्तार की कहानी कहते हैं वह उनकी पिछली फिल्मों से एकदम अलग है । नसीर का चरित्र तो अलग किस्म के लुक और प्रतीकों वाला है । वे रहस्यमय चरित्र के अपने पात्र को अनुपम के पात्र से तब तक मेल नहीं खाने देते जब तक की कहानी में उनकी अहमियत साबित नहीं हो जाती । हालांकि की दो फिल्में इस सप्ताह रिलीज हुई हैं और दोनों में वे अलग अलग तेवरों और प्रसागिकताओं के साथ है पर वेडनसडे के मामले में जरा सतर्क रहे दिखते हैं । दीपल शाह साधारण हैं उनके बसका कोई चमत्कार नहीं । पर इसे निर्देशक की तकनीकी कुशलता कहा जाएगा कि इसके चलते उसने उनके ही नहीं बल्कि जिम्मी के चरित्रों में भी नया पन दिखायी दे दिया । वरना वे बेचारे अर्से से खुद को साबित करने के लिए हाथपांव मार रहे थे । हां उनके साथ बशीर प्रभावित करते हैं। राजपाल यादव की फिल्म में एक अहम भूमिका थी लेकिन संपादन के चलते वे फिल्म से एकदम बाहर हो गए पर उसकी विवरिणिका में अभी भी उनका नाम जा रहा है ।

नीरज की यह पहली फिल्म है लेकिन वे अपने कथानक में बरते गए पात्रों और चरित्रों को कहीं भी लार्जर देन लाइफ नहीं दिखाते । यही उनकी पटकथा की खूबी भी है कि एक आम आदमी उनकी कहानी में जब अंत में सबके सामने आकर भी नहीं दिखायी देता तो वे वैचारिकता के स्तर पर ले जाकर बहस के लिए जरूर छोड देते हैं । यह अलग बात है कि अंत में आंतकियों को छोडने के बाद नसीर उन्हें अपने ही बनाए एक बम से एक ऐसी जगह पर उडा देते हैं जिसका किसी को अंदाजा नहीं होता । फिल्म का अंत का दृश्य नीरज ने बहुत प्रभावशाली तरीके से फिल्माकिंत किया है जिसमें अनुपम और नसीर आमने सामने हैं लेकिन एक आलू को गिराने के प्रतीक और नसीर की पत्नि का उनकी सकुशलता के लिए आया फोन नीरज की फिल्म का सारा सच बयान कर देता है ।

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