FILM REVIEW : THE LAST LEAR

FILM REVIEW : THE LAST LEAR
एक उम्र के बाद आदमी रिटायर हो जाता है पर यदि वह चाहे तो एक बार नहीं बार बार खुद को कई बार साबित कर सकता है। जो लोग रचनात्मकता से जुड़े हैं उनके लिए तो उम्र कोई मायने ही नहीं रखती। सो निर्देशक ऋतुपर्णो घोष की नई फिल्म द लास्ट लीयर आदमी की इसी नई शुरूआत को कहने की कोशिश करती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन की मुख्य भूमिका में हैं। यह पहली बार है जब अमिताभ बच्चन ने किसी अंग्रेजी फिल्म में काम किया है और उनके साथ प्रीटि ज़िंटा, दिव्या दत्ता और शेफाली शाह भी हैं। यह अलग बात है कि पिछले साल मार्च में बड़े जोर शोर से बनाई गई इस फिल्म को उसी साल ठीक एक महीने बाद प्रदर्शित किया जाना था, लेकिन जब फिल्म पूरी हो गई तो इसे प्रदर्शित करने के लिए कोई वितरक तैयार नहीं हुआ। अंततः इसे टोरोंटो जैसे फिल्म समारोहों में भेजा गया और अब जाकर इसे प्रदर्शित किया गया है। अब यह भी इस फिल्म के साथ ही होना था कि इस साल जब इसे प्रदर्शित किया जाने लगा तो जया बच्चन अपने हिन्दी मराठी के विवाद में फँस गई और मुंबई में एक बार फिर इसके प्रदर्शन को लेकर पशोपेश बना रहा।
दरअसल ऋतुपर्णो की यह फिल्म एक नहीं ढेरों स्मृतियों और फ्लैशबैक के साथ बनाई गई है। फिल्म की कहानी हैरी उर्फ हरीश मिश्रा (बिग बी) नाम के एक ऐसे रंगमंच के वरिष्ठ अभिनेता की है जो शेक्सपियर के नाटकों और उनके पात्रों का दीवाना है। अपने पूरे कैरियर में वह शेक्सपियर के नाटक करता रहा है। उसका सपना है कि वह अपने जीवन में एक बार शेक्सपियर के नाटक के एक मशहूर चरित्र किंग लीयर का पात्र निभाए। लेकिन इससे पहले कि उसका यह सपना पूरा हो वह अपनी उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच जाता है जहाँ उसे कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं। अब नई पीढी के अभिनेता (प्रसन्नजीत) उसकी जगह ले चुके हैं। जबकि उसके साथ रहने वाली उसकी दोस्त (शेफाली शाह) उसे लेकर चिंतित है और एक अभिनेत्री शबनम (प्रीटी जिंटा) आज भी उसके रंगमच पर लौटने के इंतजार में हैं। एक दिन एक युवा पत्रकार (जेशू सेनगुप्ता) उसका इंटरव्यू करने आता है तो उसकी स्मृतियों की वापसी ही नहीं होती बल्कि उसके सपने को पूरा करने में युवा फिल्मकार सिद्धार्थ (अर्जुन रामपाल) भी जुड़ जाता है। हैरी को लेकर वह द मास्क नाम की एक फिल्म बनाता है और लेकिन उसकी सफलता देखने से पहले वह कोमा में चला जाता है। कुल मिलाकर एक सपने के पूरे होने और एक कलाकार की पुनः वापसी की स्मृतियों की दुःखद और सुखद अनुभवों भरी यात्रा है द लास्ट लीयर।
फिल्म में गीत संगीत की कोई गुंजाइश नहीं थी.
यह पूरी तरह बिग बी की फिल्म है। ब्लैक के बाद एक बार फिर वे अपने नए अंदाज और नई रीच के साथ सामने आए हैं जो उन्हें केवल एक बेहतर और संवेदनशील अभिनेता ही नहीं बलिक प्रयोगात्मक चरित्रों को आजमाने वाला कलाकार भी साबित करता है। हालांकि अब उनकी छवि ऐसी है कि वे कुछ भी करें बिग की छाया उन पर बनी रहती है। इसकी वजह है कि वे अपनी संवाद अदायगी शैली में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं ला पाते हैं, लेकिन उनकी शारीरिक भाषा पर गौर करें तो अब वे ऐसी फिल्मों के लिए भी एक उचित अभिनेता कहे जा सकते हैं। मुझे लगता है कि फिल्म में उनका अब तक के कैरियर का सबसे शानदार दृश्य वह है जिसमें वे अर्जुन रामपाल को अपने रंगमंच के दिनों की एक बानगी अभिनीत करके दिखा रहे हैं। इसमें कैमरा उनके पाँवों की तरफ से चेहरे और उनकी आँखों को दिखा रहा है। इस दृश्य में प्रयोग की गई प्रकाश व्यवस्था ने उनके चेहरे पर जो भाव उभारे हैं वे अब तक मैंने उनकी किसी फिल्म में नहीं देखे। प्रीटी ज़िंटा के लिए मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि वे केवल यशराज की फिल्मों की ग्लैमरस गुडिया नहीं है। यदि मौका मिले तो वे इससे भी बेहतर काम कर सकती है, लेकिन वे शेफाली का मुकाबला नहीं कर सकती। उनके चेहरे पर सादगी और संवादों की अदायगी में जो सहजता है वह किसी और अभिनेत्री में नहीं। यही बात अर्जुन रामपाल के बारे में भी कही जा सकती है कि बतौर अभिनेता अभी तक वे शायद इतने परिपक्व नहीं दिखे जितने इस फिल्म में, लेकिन पूरी फिल्म में दिव्या दता की संवाद अदायगी का अंदाज निराला है। फिल्म में वे बिग बी की नर्स आइवी की भूमिका में हैं वे जब तक फिल्म में रहती हैं शेफाली और प्रीटी के चरित्रों और पात्रों का आधार भी बनी रहती हैं।
ऋतुपर्णो सिनेमा के कम रंगमंच के निर्देशक अधिक लगते रहे हैं। उनकी रेनकोट और अंर्तमहल जैसी फिल्मों में उनके निर्देशन का यह हुनर दिखाई भी देता है, लेकिन सिनेमा में रंगमंचीय शैली में बनी फिल्मों को लोग पंसद नहीं करते। जहाँ तक इस फिल्म की बात है तो यह पूरी तरह शेक्सपियर के नाटकों या उनके किस्सों को दिखाने वाली फिल्म नहीं है। इसके लिए ऋतु ने अपने मुख्य पात्र को आधार भर बनाया है। वे कभी भीड़ और पैसे की चमक को दिखाने के लिए फिल्में नहीं बनाते पर उनकी फिल्मों में जीवन, रिश्तों और उनके यथार्थ का जो खाका बुना जाता है वह शेक्सपियर के पात्रों की तरह जरूर दिखाई देता है। इस फिल्म में वे बिग बी को पूरी तरह किंगलीयर बने नहीं दिखाते बल्कि उससे अधिक और प्रभावित दिखाते हुए बाकी जीवन की स्मृतियों और संबधों को दिखाते है। जहाँ अहसास जीवन का प्रतीक हैं और स्मृतियाँ उसे जीने के लिए आवश्यक साँसों का प्रतीक बिंब। यह अलग बात है कि वे अपनी फिल्मों में अपने पात्रों को आउटडोर में ले जाने का अतिरिक्त प्रयास नहीं करते, लेकिन वे इस बात का प्रयास जरूर करते हैं कि वे भीतरी दुनिया में रहते हुए भी बाहरी दुनिया का आयना बने रहें।
बिगबी के ब्लैक के बाद एक बार फिर बेहतरीन अभिनय के लिए फिल्म देखें.
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